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खेतिहर मजदूर / गुलज़ार हुसैन

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कोहरे में सिमटी सर्द सुबह
और दांत किटकिटाने वाली
ठंडी हवा के झोंकों के बीच वह उस खेत की पगडंडी पर
बहुत देर नहीं बैठ पाता है
बहुत देर तक बैठना चाहने के बावजूद
ओस से गीली घास की छुअन उसे सिहरा देती है
तलुओं से घुसती ठंडी छुरी-सी चुभन
उसके हड्डियों को कंपकंपा देती है
फिर भी वह वहां हर सुबह आता है

हर मौसम की खूबसूरती और बदसूरती की
परवाह किए बिना वह निहारता है
लहलहाती फसल की हरियाली
वह सुनता है सरसराहट
और भावावेश में सहलाने लगता है
कच्चे गेहूं के पौधों के सिरों को

वह पौधों से बातें करता है
लेकिन उनसे कभी कह नहीं पाता है
कि खेत में कमैनी-कटैनी करते -करते
खाद-पानी देते-देते
वह जवानी से बुढ़ापे में
प्रवेश कर गया है
कि उसका झुका हुआ कमजोर शरीर
फसल में कीड़े लगने की प्रक्रिया को
शुरू में ही देख लेने में उसकी मदद करता है

वह बहुत प्यार करता है
रेलवे लाइन के इस पार वाले खेतों से
यह जानते हुए भी
कि न तो ये सारे खेत उसके अपने हैं
और न ही इनसे निकलने वाला अनाज

लेकिन क्या खेत की मिट्टी और लहलहाते पौधे जानते हैं कि कौन उनका अपना है
खेतिहर मजदूर या खेत-मालिक ?