खेतों के बच्चे / कुमार वीरेन्द्र
दिन तो दिन, रात में भी होती बारिश
आजी कहीं भी होती
तसला, कटोरा, कठवत ले, दौड़ती बखारवाले
घर में, और जहाँ-जहाँ चूता पानी, लगा देती, ताकि बखार में रखा बोआई को बीज
भीगकर बर्बाद न हो, मैं आजी का ऐसा पिछलगुआ, अपने से तो अकेले सोते छोड़
चली जाती, पर उसके बिन कहाँ नींद आनेवाली, बखारवाले घर में
भीगते चला ही जाता, देखता, पानी ओड़ने को बर्तन
लगा देने के बावजूद, चुपचाप
कोने में बैठी है
भुरकी में ढिबरी हवा से लुपलुपा रही
मैं कहता, 'देखो, अब बखार
नाहीं भीगेगा, चलो सो जाओ', इस पर मुझे ही जाकर सो
जाने को कहती, जब नहीं मानता, बखार पर से उतर आती नीचे, आँचर ओढ़ाए, ले जाती सुलाने
खटिया पर बैठा, ढिबरी बार, जो चुआ, पहिले उस पानी को काछ, आँगन में, फेंकने में लग जाती
देखता, ऐसा सिर्फ़ आजी ही नहीं कर रही, माई-चाची भी, यानी हर घर चू रहा
तभी तो, जब कहता, 'बाबूजी से कह के छपरिया छवा दो', इस
पर हर बार की तरह, एक ही बात कहती
'हँ, बेटा...हँ, एक दिन सब
छवा जाएगा'
फिर सोने नहीं, थपकी दे सुलाने को
खटिया पर बैठ जाती
लेकिन आजी बिन कहाँ नींद आनेवाली, जब कहता
'अब सो जाओ, बखार पर बर्तन लगा दिया न...', कहती, 'कइसे सो जाऊँ, बरखा तेज, कहीं और
चूने लगा तो ?', 'तो रात-भर जगी रहोगी ?', कहती, 'जइसे तुम हमरे बच्चे हो न, अइसे ही बखार
में खेतों के बच्चे हैं, बोलो, तुम पानी में भीगोगे, नींद आएगी ? फिर उन्हें कइसे
आएगी...' फिर कहती, 'बेटा, तुम तो बोल भी सकते हो, ई
जो खेतों के बच्चे हैं न, बोलना ही नाहीं
जानते, बस नींद पूरी हो
तो माटी में
उगना जानते हैं...!'