भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेलत मैं को काको गुसैयाँ / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥
जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ !
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दहैयाँ ॥


भावार्थ :-- (सखाओं ने कहा-) `श्याम! खेलने में कौन किसका स्वामी है (तुम व्रजराज के लाड़िले हो तो क्या हो गया ) । तुम हार गये हो और श्रीदामा जीत गये हैं, फिर झूठ-मूठ झगड़ा करते हो ? जाति-पाँति तुम्हारी हम से बड़ी नहीं है (तुम भी गोप ही हो) ओर हम तुम्हारी छाया के नीचे (तुम्हारे अधिकार एवं संरक्षण में) बसते भी नहीं हैं । तुम अत्यन्त अधिकार इसीलिये तो दिखलाते हो कि तुम्हारे घर (हम सब से) अधिक गाएँ हैं ! जो रूठने-रुठाने का काम करे, उसके साथ कौन खेले ।' (यह कहकर) सब साथी जहाँ-तहाँ खेल छोड़कर बैठ गये । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी तो खेलना ही चाहते थे, इसलिये नन्दबाबा की शपथ खाकर (कि बाबा की शपथ मैं फिर ऐसा झगड़ा नहीं करूँगा ) दाव दे दिया ।