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खेलत स्याम पौरि कैं बाहर ब्रज-लरिका सँग जोरी / सूरदास

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खेलत स्याम पौरि कैं बाहर ब्रज-लरिका सँग जोरी ।
तैसेइ आपु तैसेई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी ॥
गावत हाँक देत, किलकारत, दुरि देखति नँदरानी ।
अति पुलकित गदगद मुख बानी, मन-मन महरि सिहानी ॥
माटी लै मुख मेलि दई हरि, तबहिं जसोदा जानी ।
साँटी लिए दौरि भुज पकर्‌यौ, स्याम लँगरई ठानी ॥
लरिकन कौं तुम सब दिन झुठवत, मोसौं कहा कहौगे ।
मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखैं निबहौगे ॥
बदन उधारि दिखायौ त्रिभुवन, बन घन नदी-सुमेर ।
नभ-ससि-रबि मुख भीतरहीं सब सागर-धरनी-फेर ॥
यह देखत जननी मन ब्याकुल, बालक-मुख कहा आहि ।
नैन उधारि, बदन हरि मुँद्यौ, माता-मन अवगाहि ॥
झूठैं लोग लगावत मोकौं, माटी मोहि न सुहावै ।
सूरदास तब कहति जसोदा, ब्रज-लोगनि यह भावै ॥

भावार्थ :-- द्वार के बाहर व्रज के बालकों को एकत्र करके श्यामसुन्दर खेल रहे हैं । वैसे ही सब बालक हैं, सब अनजान हैं, सब में थोड़ी ही समझ है । कभी गाते हैं, कभी किसी को पुकारते हैं, कभी किलकारी मारते हैं, यह सब क्रीड़ा श्री नन्दरानी छिपकर देख रही हैं । उनका शरीर अत्यन्त पुलकित हो रहा है । कण्ठ स्वर गद्गद हो गया है, व्रजरानी मन-ही-मन मुग्ध हो रही हैं । इतने में ही श्यामने मिट्टी लेकर मुख में डाल ली तभी यशोदाजी ने इसे जान (देख) लिया । वे छड़ी लेकर दौड़ पड़ीं और उन्होंने (श्याम की)भुजा पकड़ ली; इससे श्यामसुन्दर मचलने लगे । (माता ने कहा-) `प्रत्येक दिन तुम बालकों को झूठा सिद्ध कर देते हो, पर अब मुझसे क्या कहोगे? (कौन-सा बहाना बनाओगे?)(श्यामसुन्दर बोले-) `मैया ! मैंने मिट्टी नहीं खायी ।' (माता बोली-) `मेरे मुख देख लेने पर (ही) छुटकारा पाओगे ।' श्याम ने मुख खोलकर उसमें तीनों लोक दिखला दिये-घने वन, नदियाँ, सुमेरु आदि पर्वत, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र तथा पृथ्वी आदि समस्त सृष्टिचक्र मुख के भीतर ही दिखा दिया । यह देखकर माता मन में अत्यन्त व्याकुल हो गयीं--`मेरे बालक के मुख में यह सब क्या है ? माता के मन की बात समझ कर श्यामसुन्दर ने मुख बंद कर लिया और बोले- `मैया! तू नेत्र तो खोल (आँखें क्यों मूँदे हैं) लोग मुझे झूठ मूठ दोष देते हैं, मिट्‌टी तो मुझे अच्छी ही नहीं लगती ।' सूरदास जी कहते हैं तब माता यशोदा ने कहा--`व्रज के लोगों को यह (दूसरे की झूठी चुगली करना) अच्छा लगता है ।' (मेरे लाल को सब झूठा दोष लगाते हैं ।)