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खेल-खेल में / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
मुट्ठी में बंद ढेर सारे
रंग-बिरंगे कंचों की तरह
बिखेर दिया ब्रह्माण्ड में
अनेक ग्रहों, नक्षत्रों को
चलाता रहा लट्टू की तरह
आकाशगंगाआंे को,
नीहारिकाओं को,
उछालता रहा गुल्ली-सा
स्थापित करने को अनेक ग्रह
सुदूर कोनांे में
ताकि संभव हो जीवन
ताकि लगे अनंत
खेलता रहा इसी तरह
बचपन में ईश्वर-सा
अब बड़ा होकर
मनुष्य बन गया हूँ!