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खेल कुर्सी का / कुलवंत सिंह
Kavita Kosh से
खेल कुर्सी का है यार यह,
शव पड़ा बीच बाज़ार यह।
कैसे जीतेगी भुट्टो भला,
देते हैं पहले ही मार यह।
नाम लेते हैं आतंक का,
रखते हैं खुद ही तलवार यह।
रात दिन हैं सियासत करें,
करते बस वोट से प्यार यह।
भूल कर भी न करना यकीं,
खुद के भी हैं नहीं यार यह।
दल बदलना हो इनको कभी,
रहते हर पल हैं तैयार यह।
देख लें घास चारा भी गर,
खूब टपकाते हैं लार यह।
पेट इनका हो कितना भरा,
सेब खाने को बीमार यह।
अब करें काम हम अपने सब,
छोड़ बातें हैं बेकार यह।