भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेल फरूक्खाबादी है / रविशंकर पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खेल फरूक्खाबादी है

निहुरे-निहुरे क्या
खड़े-खड़े
अब होती चोरी ऊंटों की !

शाहों से कहें
जागने को
चोरों से कहते चोरी को,
पकड़े जाने पर
ऊपर से
आमादा सीनाजोरी कोय

सच्चाई की
निगरानी में
चौकस है सेना झूठों की!

सबके होते हैं
भाव-ताव
चुप रहने और बोलने के,
जो दिनभर
मूंदे आंख रहें
सिक्कों से उन्हें तोलने केय

बस मुलुर-मुलुर
ताका करती है
फौज खड़ी रंगरूटों की!

गांधीवादी हैं
कहने को
सर से पांवों तक खादी है,
लेकिन बेखटके
खुला खेल
हो रहा फरूक्खाबादीय

वो न्यारे हो जो जाते हैं
अदला बदली में
खूंटो की!