खोए हुए रंग / अमरजीत कौंके

जाने अनजाने हमसे
जो रंग अचानक खो गए
हो सके तो
उन रंगों को ढूँढ कर लाएँ
आओ इस बार
होली फिर रंगों से मनाएँ

कुछ रंग
रंगों की खोज में निकले
वापिस नहीं लौटे
घर उनकी ख़बर ही लौटी
कुछ रंग ख़ूनी ऋतुओं ने निगले
कुछ रंग सरहदों पर बिखरे
कुछ रंग खेतों में तड़पते
कुछ रंगों की रूहें
अभी भी सूने घरों में तिलमिलाती
कुछ रंगों को
अभी भी उनकी
माएँ बुलातीं

ये रंग जितने भी खोए
हमारे अपने थे
इन रंगों के बिना
हमारे आँगन में
मातम है
शोक है
सन्ताप है
इन रंगों के बिना
होली रंगों की नहीं
ज़ख़्मों की बरसात है

कोशिश करें
कि कच्चे ज़ख़्मों को
फिर हँसने की कला सिखाएँ
हो सके तो
उन रंगों को
ढूँढ़ के लाएँ
और होली इस बार फिर
रंगों से मनाएँ ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा

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