खोज रहे थे हम सारी खुशियां जग में / राघव शुक्ल
खोज रहे थे हम सारी खुशियां जग में
लेकिन असली मस्ती थी मन के भीतर
सारी उम्र गुजारी खोज नहीं पाए
इस दुनिया के मानचित्र में अपना घर
ग्लोब सरीखी इस दुनिया में भटके हम
गोल घूमकर कितने चक्कर खाए थे
कितने रस्ते नापे कहीं नहीं पहुंचे
जहां खड़े थे वही लौटकर आए थे
पर्वत जंगल मैदानों में घूम लिए
मिला न हमको अपने मन का गांव शहर
जब-जब रहे सफर में आशावादी थे
बांध रहे थे हम मंजिल के मंसूबे
नदी चुनी जो भी हमने उसको खेकर
सदा अंत में सागर में जाकर डूबे
सभी दिशाओं में जल ही जल था लेकिन
प्यासा कंठ रहा ये सूखे रहे अधर
सपनों का आकाश चूमने की खातिर
उम्मीदों के हमने पंख लगाए थे
भरी उड़ाने जब मन के संपाती ने
सूरज ने तब उसके पंख जलाए थे
उड़ते उड़ते मानो मन की चिड़िया ने
काट लिए अपने हाथों से अपने पर