भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खोज है मीठे कुँओं की / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
पाँव नंगे
रेत के फैलाव खारे
बस्तियाँ कड़वे धुँओं की
हर सरोवर के किनारे
दिन-ढले तक
आहटें हैं
धूप की मीनार के नीचे
कई टकराहटें हैं
वही खबरें
चुके सूरज के शहर में
थके कंधे-बाज़ुओं की
मुट्ठियों में प्यास बाँधे
लोग आँगन में
खड़े हैं
बादलों के चित्र नीले
बंद कमरों में जड़े हैं
वही पिछली आदतें
सागर किनारे
खोज है मीठे कुँओं की