खोज / बोधिसत्व
पता नहीं क्या खो गया है
कल शाम से लग रहा है ऎसा ।
कमरे में ढूंढ़ता हूँ
बाज़ार में, दूकानों में
सभाओं में अस्पतालों में खोजता हूँ
कभी न गए शहरों में
दोस्तों से चिट्ठी लिखकर पूछता हूँ
कि उनकी जानकारी में मेरा कुछ
वहाँ तो नहीं रह गया है ।
याद करने की कोशिश करता हूँ
पर याद नहीं आता कि
क्या खोज रहा हूँ ।
बरफ़ की मार खाई फ़सलों में
तो कुछ नहीं खो गया है, बिक चुकी
किसी क़िताब के बीच में
मुंद चुकी पिता की आँखों में
या पता नहीं कहाँ खो गया है कुछ ।
ऎसा क्या खो गया है
जिसके बिना श्रीहीन लग रहा है सब कुछ
सोते-जागते, भागम-भाग में
पता नहीं कब कैसे खो गया है
जिसे ढूंढ़्ता फिर रहा हूँ ।
अपने भीतर भी जहाँ झाँकता हूँ
अंधेरा ही अंधेरा है फैला
कुछ भी ढूंढ़ पाना सम्भव नहीं
फिर भी ढूंढ रहा हूँ
लगातार... ।