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खोटी अठन्नी / रामेश्वर दयाल दुबे

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आओ, तुम्हें सुनाएँ अपनी बात बहुत ही छोटी,
किसी तरह आ गई हमारे हाथ अठन्नी खोटी!
रहा सोचता बड़ी देर तक, पर न याद कुछ आया,
किसने दी, कैसे यह आई, अच्छा धोखा खाया!
जो हो, अब तो चालाकी से, होगा इसे चलाना,
किंतु सहज है, नहीं आजकल मूरख-बुद्धू पाना!
साग और सब्जी लेने में उसे खूब सरकाया,
कभी सिनेमा की खिड़की पर मैंने उसे चलाया!
कम निगाह वाले बुड्ढे से मैंने चाय खरीदी,
बेफिक्री से मनी बेग से वही अठन्नी दे दी!
किंतु कहूँ क्या, ‘खोटी’ कहकर सबने ही लौटाई,
बहुत चलाई, नहीं चली वह, लौट जेब में आई!
रोज नई तरकीब सोचता, कैसे उसे चलाऊँ,
एक दिवस जो बीती मुझ पर वह भी तुम्हें सुनाऊँ!
एक भला-सा व्यक्ति एक दिन निकट हमारे आया,
‘क्या रुपए के पैसे होंगे?’ रुपया एक बढ़ाया!
मौका अच्छज्ञ देख, पर्स को मैंने तुरत निकाला,
वही अठन्नी, बाकी पैसे, देकर संकट टाला!
मैं खुश था, चल गई अठन्नी, कैसा मूर्ख बनाया,
इसी खुशी में मैं तंबोली की दूकान पर आया!
रुपया फेंक कहा मस्ती मेें-‘अच्छा पान बनाना’
रुपया देख तंबोली विहँसा, उसने मारा ताना!
‘खूब खूब, खोटे रुपए को क्या था यहीं चलाना,
मैं गरीब हूँ, किसी अन्य को जाकर मूर्ख बनाना।’
खोटा रुपया रहा सामने, उसको देख रहा था,
गई अठन्नी, आया रुपया, इस पर सोच रहा था!
मूर्ख बनाने चला स्वयं वह पहले मूर्ख बनेगा,
सच है जो डालेगा छींटे, कीचड़ बीच सनेगा!
घातक है हर एक बुराई, हो कितनी ही छोटी,
सिखा गई है खरी बात यह, मुझे अठन्नी खोटी!