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खोया हुआ ख़त / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
पढ़ के भी पढ़ नहीं रहे हो जिसे
उस लिखे को न लिखावट समझो
ख़त नहीं वो तो ख़ुद को लिखती है
ख़त के कागज़ में वही दिखती है
लिख गई होगी कोई चुभती बात
जिससे अक्षर भी तिलमिला उठे
उसने कुछ और लिखा
ख़त ने कुछ और कहा
आँधियों ने झपट लिया वो ख़त
उड़ा-उड़ा के उसे दूर छिपाए रक्खा
आया जंगल
यहाँ के पेड़ ज़रा अड़ियल थे
भिड़ गये
आँधियों को रोक दिया
छँट गया गर्दो-गुबार
घटा घिरी घुमड़-घुमड़ बरसी
भीग कर वक़्त की झड़ी में तब
ख़त के मजमूँ का वज़न और बढ़ा
तब कहीं जा के
कब का खोया हुआ ख़त आया
कई जनमों के बाद आज वो दिखी फिर से।