खोयी हुई मुस्कानों का शहर / अशोक कुमार
वह खोयी हुई मुस्कानों का शहर था
वहाँ कोई मुस्कराता नहीं था
न सब्जीवाला न पनवाड़ी
न राशन न परचून की दुकानवाला
मुस्कान कब खोयी
पता नहीं
कब थी
पता नहीं
आखिरी बार कब दिखी
पता नहीं
कविता है तो क्या
गलतबयानी की यहाँ हरगिज जगह नहीं
मुस्कान तो थी जनाब
यहाँ ठीक नीचे एक शहर था
जहाँ लोग मुस्काते थे
और मुस्कानों के मलवे में ही दबे थे
जब एक पुरातत्वशास्त्री
शहर के बाहर के टीलों में निकाल आया था
किसी मुस्कानों के नगर का भग्नावशेष
कविता है तो क्या
पुरानी बातों से सिर्फ़ मुस्कान की तसदीक नहीं होती
अभी तो मुस्काया था
काँच की दीवारों के पीछे कोई सेल्समैन
जब तुम गुजर रहे थे
उसकी दुकान के आगे
पर तुमने मुस्कान दबायी थी
पता नहीं उसे वह तुम्हारी कोई कमजोरी समझ ले
और बेच डाले कोई बीमा या बरतन
या कपड़े या कुरसी
तो जनाब
मुस्कराना पीड़ित या पीड़क होने का सिम्बल था यहाँ
और इसलिये लोग जो काँच की किसी दीवार के पीछे नहीं थे
किसी विवशतावश
वे मुस्कराहट छुपा जाते थे
और वह शहर खोयी हुई मुस्कानों का शहर था
कि मुस्कान सिर्फ़ बिकती थी
और जो खरीदना नहीं चाहता था
वह मन से मलिन होता था
खोयी हुई मुस्कानों के शहर में
एक बात और अलग थी
कोई था जो ठठा कर हँसता था
शायद वह कोई और था
और वह किसी काँच की दीवार के पीछे
अपनी मुस्कान और पेट लिये नहीं खड़ा था
वह मुस्कानों की कालाबाजारी का कोई व्यापारी था
उसकी अपनी ऊँची दीवारें थी
वही मुस्कराता था
वही ठठा कर हँसता था
हम बस नीचे दबे हुए
खोयी हुई मुस्कानों के शहर के
बाहर निकलने की उम्मीद कर सकते थे बस।