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खोला द्वार / कविता भट्ट

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14
खोला द्वार यूँ
बोझिल पलकों से,
नशे में चूर
कदमों के लिए भी,
मंदिर के जैसे ही।
15
टूटना-पीड़ा
उससे भी अधिक
पीड़ादायी है
टूटने-जुड़ने का
विवश सिलसिला
16
घृणा ही हो तो
जी सकता है कोई
जीवन अच्छा
किन्तु बुरा है होता
प्रेम का झूठा भ्रम
17
तोड़ते नहीं
शीशा,तो क्या करते
सह न सके
दर्द-भरी झुर्रियाँ
किसी का उपहास
18
भरी गागर
मेरी आँखों की प्रिय
कुछ कहती,
जीवन पीड़ा सहती
लज्जित, न बहती
19
एक डोरी हो-
जिस पर फैलाऊँ
रंग-बिरंगे
उजले-नीले-पीले
सतरंगी सपने ।
20
रजनीगंधा
रात के पृष्ठों पर
तुम करती
खुशबू बिखेरते
सशक्त हस्ताक्षर ।
-०-