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खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत / 'ज़फ़र' इक़बाल
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खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत
तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत
जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी
जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत
खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की
यही काफी है बहाने न बना, और बहुत
सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा
ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत