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खोलोॅ द्वार / जटाधर दुबे
Kavita Kosh से
प्रिय हमरोॅ उठोॅ, खोलोॅ द्वार।
पूरब में उगलै सूर्य
बजलै विहान तूर्य,
जगती से मिलै लेॅ एैली छै उषा
बाहीं के पसार
प्रिय हमरोॅ उठोॅ, खोलोॅ द्वार।
कली-कली ने खोली देनें छै
संपुट पंखुड़ी के बहार,
लगलोॅ छै देखोॅ भौंरा के कतार
बजी उठलै मन वीणा के तार-तार,
किरण करै छै भू-नभ विहार।
प्रिय हमरोॅ उठोॅ, खोलोॅ द्वार।
खुललै मुँह कमल के भौंरा उड़लै
सुन्दरी उषा किरणोॅ के लाली साथें,
झटपट-झबझब तुंग श्रृंग पर चढ़लै।
चिड़िया के चुनमुन में गेलै अंधकार,
हौलेॅ-हौलेॅ बहलै मदिर बयार।
प्रिय हमरोॅ उठोॅ, खोलोॅ द्वार।