भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोलो काल किवाड़ / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रगति पंथ दस्तक दे कहता
खोलो काल किवाड़

जहाँ कभी सौभाग्य सदृश था
मौसम का बदलाव
वहीं आज बदलावों ने है
बोये नये अभाव
सभी जानते मगर न रुकता
प्रकृति संग खिलवाड़

कोयल की थी तान जहाँ पर
गौरैयों का वास
पशु-खग नर सब की खातिर ही
था समुचित आवास
वहीं नीड़ को टॉवर चिमनी
नित हैं रहे उजाड़

स्वार्थ सिद्धि की परिभाषायें
बुनने लगीं तनाव
एक घाव को भरने को हम
दिये जा रहे घाव
परमाणु ताकतों के बल पर
सदी रही चिंघाड़