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खोलो काल किवाड़ / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
प्रगति पंथ दस्तक दे कहता
खोलो काल किवाड़
जहाँ कभी सौभाग्य सदृश था
मौसम का बदलाव
वहीं आज बदलावों ने है
बोये नये अभाव
सभी जानते मगर न रुकता
प्रकृति संग खिलवाड़
कोयल की थी तान जहाँ पर
गौरैयों का वास
पशु-खग नर सब की खातिर ही
था समुचित आवास
वहीं नीड़ को टॉवर चिमनी
नित हैं रहे उजाड़
स्वार्थ सिद्धि की परिभाषायें
बुनने लगीं तनाव
एक घाव को भरने को हम
दिये जा रहे घाव
परमाणु ताकतों के बल पर
सदी रही चिंघाड़