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खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रूख़्सार पर / फ़कीर मोहम्मद 'गोया'

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खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रूख़्सार पर
छा गई काली घटा सी आन कर गुल-ज़ार पर

क्या ही अफ़शां है जबीन ओ अबरू-ए-ख़म-दार पर
है चराग़ाँ आज काबे के दर ओ दीवार पर

हम अज़ल से इंतिज़ार-ए-यार में सोए नहीं
आफ़रीं कहिए हमारे दीदा-ए-बेदार पर

कुफ्र अपना ऐन दीं-दारी है गर समझे कोई
इज्तिमा-ए-सुब्हा याँ मौकूफ है जु़न्नार पर

है अगर इरफाँ का तालिब ख़ाक-सारी कर शिआर
देखते हैं आइना अक्सर लगा दीवार पर