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खो दिया सम्पूर्ण जीवन, व्यर्थ में ही / प्रदीप कुमार 'दीप'

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खो दिया सम्पूर्ण जीवन, व्यर्थ में ही,
तुच्छ-सी इन कामनाओं के लिए बस!

मान वेदों की ऋचाओं-सा दिया, पर,
शब्द सब बेअर्थ थे वे आज समझे!
रेत की मानिंद निकली हाथ से जब,
बेवफा इस जिंदगी का राज समझे!
अर्थ को ही लक्ष्य अंतिम मानकर नित,
दौड़ते पीछे रहे दिन रात केवल,
मूल था वह ही दुखों का अंतत: तो,
हम जिसे सुख शांति की आवाज समझे! !

हो गये तत्पर समर को शस्त्र लेकर,
तुच्छ-सी इन भावनाओं के लिए बस!

खोज में निकले थे जीवन की मगर हम,
रात दिन बस मृत्यु की ही ओर दौडे़!
रखने थे सम्बंध जिनसे अनवरत ही,
जानकर सम्बंध बस उनसे ही तोडे़!
जो मिला थोडा़ लगा हमको सदा ही!
रख नहीं संतुष्ट पाये हम स्वयं को,
चाहते थे साधना सम्पूर्ण जग को,
साध ही पाये न लेकिन मन के घोडे़! !

कर दिया जीवन हवन आहूतियाँ दे,
मेंढको की अर्चनाओं के लिए बस!

सारथी हो कृष्ण-सा यह कामना की,
बन न पाये पार्थ-सा लेकिन कभी हम!
कागजी लेकर हथौडे़ प्रस्तरों को,
तोड़ने में ही लगाया आज तक दम!
स्वार्थ की भट्टी में तपकर सोचते हैं,
एक दिन आये कि हम कुंदन बनेंगे!
चार अक्षर पढ़ लिए तो विज्ञ बनकर,
वांचने में लग गये दिन रात मौसम! !

भाव शब्दों में समेटे तो समेटे,
हर समय ही याचनाओं के लिए बस! !