Last modified on 21 मई 2019, at 19:06

ख्वाहिशों की बस्तियों में आज अपना घर लगे / ऋषिपाल धीमान ऋषि

ख्वाहिशों की बस्तियों में आज अपना घर लगे
चाहता हूँ रौशनी पर, रौशनी से डर लगे।

पूछिए मत हाल सड़कों और गलियों का यहां
बन्द कमरों में भी मुझको शोर का पत्थर लगे।

जो कहा उसने, वही था दिल में उसके, क्या पता?
क्या बताऊँ, दोगला हर शब्द हर अक्षर लगे।

देखता हूँ जब भी छिप कर मैं तेरी जानिब सनम
चोर-सा कोई छिपा मुझको मेरे अंदर लगे।

गुफ़्तगू उससे भला मैं किस तरह हंसकर करूँ?
जिसके हर इक बोल में मुझको छिपा खंज़र लगे।

प्रश्न दुनिया भर के उलझे हल किये हमने सभी
पर बड़ा मुश्किल सहज से प्रश्न का उत्तर लगे।

मच गई हलचल सी दिल में आप जो आये यहां
झील के पानी में जैसे घूमता कंकर लगे।

रात भर की नींद की क़ीमत वही बतलायेगा
रोज़ ही फुटपाथ पर जिस शख्स का बिस्तर लगे।

फायदा क्या दूर से पैग़ामे-इश्क़ आया 'ऋषि' ?
बात जब है यार सीने से मिरे आकर लगे।