भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गंगाजल से क्या हुई कभी सियासत शुद्ध ? / ओम निश्चल
Kavita Kosh से
भले मिटा दो राह से करो नेस्त नाबूद ।
फिर भी अपनी पर अड़ा जनता का ताबूत ।
हंस कर मिलते देख तू ख़ुश मत हो यों पार्थ !
इनके अपने स्वार्थ हैं उनके अपने स्वार्थ ।
अभी न रख नैराश्य के कांधे अपना भाल,
अभी सजाने दे उन्हें सत्ता की चौपाल ।
कहाँ मिलेंगे साधु अब और धर्म के धाम
अब तो दिखते हर तरफ बापू आशाराम ।
जो समता के मंत्र का करते नित उच्चार
वही जाति औ’ धर्म के अव्वल पैरोकार ।
राजनीति के कीच में जिनके दोनो हाथ
श्लोक वही दुहरा रहे शुचिताग्रह के साथ ।
मन की मैल न जा सके, मल-मल धोएँ बुद्ध
गंगाजल से हुई क्या कभी सियासत शुद्ध ?