भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा-नहान / कुंदन अमिताभ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माघी पूर्णिमा आरो
तिलासंक्रान्त में
बिहनगरे
फैरछऽ के पहिनै
गंगा नहाबै लेली
आपनऽ गाँव खानपुर सें
सुलतानगंज दन्नेॅ
चली दै वाला वू दिन
जबेॅ-जबेॅ मऽन पड़ै छै
तेॅ मऽन करै छै
फेरू सें ओन्हें जतरा
आरम्भ करलऽ जाय।
वैन्हऽ दिना में
गंधबहगिरि सें
चलै वाला हवाँ
छुवै रहै पहिने हमरे देह
आरो सौंसे बदन
स्वर्ग केरऽ शुद्धता सें
नहाय जाय रहै
बीच रस्ता में
बडुआ नद्दी के बालू पेॅ
पड़ै वाला डेग
नरम-नरम छुहन पाबी केॅ
बढ़ै के नै लै नाम।
मामा के हाथऽ सें
अनवरत हिलतें कनतरी सें
दही केरऽ महक जबेॅ
नाकऽ तलक पहुँचै
तेॅ बुझाय पड़ै
जेना गंगा क्षितिज में
ऊपर खूब ऊपर
उठी गेलऽ छै
कोसऽ के दूरी डेगऽ में
बदली गेलऽ छै।
गंगा माय केरऽ
कन-कन ठार पानी में
डुबकी लगावै रहौं तेॅ
उत्तरवाहिनी गंगा केरऽ विशालता
बीच गंगा में बसलऽ अजगैबी बाबा रऽ
मंदिर केरऽ भव्यता
अपनऽ दन्नेॅ खींची लै रहै
हमरऽ मऽन।
गंगा घाटऽ पेॅ सुक्खै लेली
रौदा में हवा साथें लहरैतें
रंग-बिरंगी के नुंगा-फट्टा
मछुआरा केरऽ जाली में बझलऽ
कतला, बुआरी आरो कै तरह के मछली
नाव आरो स्टीमर के हिलमिल-हिलमिल
ीाुरूकबा उगला के गंगा सीना पेॅ
झिलमिल झिलमिल
के ऐन्हऽ शमां बँधै
कि देखतै रहै के मऽन करै।
गंगा स्नान करी केॅ
घाटै पर
दही-चूड़ा-गूड़-तिलबा
अल्लू-कोबी के तरकारी
खाय केरऽ मजा
कि कहियो भुलैलऽ जाबॅे पारेॅ।
लौटै के मऽन तेॅ नहिये करै
गामऽ के डग्घर
लौटला के कत्तेॅ दिना बाद ताँय
सुलतानगंज के गंगा बहतैं रहै
हमरऽ मनऽ में