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गंगा-विनय / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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गो वधी गंवारा जो अन्हात यहि धारा, पाप ताप को निवारा ताको पुन्यको पहारा है।
व्रह्मघाति चोरा परदारको रमनिहारा, घने जन्तु मारा गृह जारा ताहु तारा है॥
वाट वटपारा मदवारा पितुते विगारा, ताहु न विसारा धरनी के हरे भारा है।
विष्णु-पद को पखारा ताते ध्यान है हमारा, गंगाजी को धारा सोइ धारा मुक्ति-द्वारा है॥5॥