गंगा का विकराल रूप / साधना जोशी
प्रचण्ड लहरों की बेग में,
आज गंगा को देखा हैं ।
ताण्डव नृत्य करती,
जन-धन का संहार करके,
तुफान के वेग को,
अपने में समाकर,
दामिनी की ज्वाला,
लहरों मे उठकर ।
प्रलय करने निकली है,
धरा पर,
लगता है गंगा,
सर्व तारिणी ही नहीं,
सर्व हारिणी बन गई है,
मानव को संदेष देने के लिए ।
तुम में षाक्ति है तो,
बाँधोलो मुझे,
मैं बिजली उत्पन्नत्र
ही नहीं करती,
भस्म भी करती हूँ ।
मेरी क्षमा को तुमने,
मेरी ही निर्बलता समझ लिया,
अपनी गन्दगी को,
मेरी पवित्रता में मिलाकर
मानव तुम अयासी बन गये हो ।
ऐ धरती पर राज करने वालों
मैं एक प्रचण्ड रण-भेरी का,
बिगुल सुनने चली हूँ ।
जिसमें निर्दोश भी पिस गये हैं,
गेहूं में घुन की तरह ।
संभलने के लिए समय दिया था,
एक वर्श का,
जिसमें स्वार्थ को नहीं,
त्याग पाया पापी मनुश्य,
आज सब का सब कुछ,
स्वाह कर गयी हूँ मैं ।
खण्डहर बनाकर ही छोड़ा,
इस अपनी उत्तर की नगरी
काषी को ।