गंगा बहती जाये रे / कमलेश द्विवेदी
गंगा बहती जाये रे-गंगा बहती जाये रे।
हर-हर-हर-हर गाकर ये गति का गीत सुनाये रे।
झरने आँचल थामें तो
उनको लेकर संग चले।
पर्वत रस्ता रोकें तो
उनसे करती जंग चले।
जीवन कैसे जीना है गंगा हमें सिखाये रे।
गंगा बहती जाये रे-गंगा बहती जाये रे।
चाल कभी सीधी इसकी
चाल कभी ऐसी-वैसी.
भोली भी है चंचल भी
पर्वतीय बाला जैसी.
यह अपनी सुन्दरता से किसको नहीं रिझाये रे।
गंगा बहती जाये रे-गंगा बहती जाये रे।
जब पर्वत से चलकर ये
मैदानों में आती है।
तजकर सारी चंचलता
लाजवती बन जाती है।
ज्यों ससुरे में नयी बहू सकुचाये-शरमाये रे।
गंगा बहती जाये रे-गंगा बहती जाये रे।
सबको गले लगाए ये
सबसे प्यार-दुलार करे।
पर्वत से सागर तक के
सपनों को साकार करे।
जिधर-जिधर से गुज़रे ये हरियाली फैलाये रे।
गंगा बहती जाये रे-गंगा बहती जाये रे।