गंगा मइया / उमाकांत मालवीय
'गंगोत्री में पलना झूले
आगे चले बकइयाँ
भागीरथी घुटुरवन डोले शैल-शिखर की छइयाँ
छिन छिपती, छिन हौले किलके
छिन ता झाँ वह बोले
अरबराय के गोड़ी काढ़े
ठमकत-ठमकत डोले
घाटी-घाटी दही-दही कर चहके सोन चिरइया
पाँवों पर पहुड़ा कर परबत गाये खंता-खइयाँ
पट्टी पूज रही है
वरणावृत्त की परिक्रमा कर
बालों में रूमाल फेन का
दौड़े गाये हर हर
चढ़ती उमर चौकड़ी भरती, छूट गई लरिकइयाँ
भली लगे मुग्धा को अपनी ही प्यारी परछइयाँ
दिन-दिन अँगिया छोटी पड़ती
गदराये तरुणाई
पोर-पोर चटखे मादकता
लहराये अँगड़ाई
दोनों तट प्रियतम शान्तनु की फेर रही दो बहियाँ
छूट गया मायका बर्फ का बाबुल की अँगनइयाँ
भूखा कहीं देवव्रत टेरे
दूधभरी है छाती
दौड़ पड़ी ममता की मारी
तजकर सँग-संघाती
गंगा नित्य रँभाती फिरती जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा, वत्सल गंगा मइया'