भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गंगा रूठ गयीं / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
मोक्षदायिनी अमृतधारा, तोड़ चलीं प्रतिबंध।
गंगा रूठ गयीं हैं हमसे, गंगा रूठ गयीं।।
ब्रह्म कमंडल से वह निकलीं,
शिव की जटा समायीं।
भगीरथ के तप से ही माँ,
गंगा भू पर आयीं।
धरती की बेटी बन जोड़े, जन्मों के संबंध।
गंगा रूठ गयीं हमसे, गंगा रूठ गयीं।।
पाप किये या पुण्य किये हम,
जब गंगा तट जाएँ।
माँ बनकर गंगा की लहरें,
हमको अंग लगाएँ।
आज वही माँ तोड़ रही है, ममता की सौगंध।
गंगा रूठ गयीं हैं हमसे, गंगा रूठ गयीं।।
भौतिक सुख में अंधे होकर,
हमने बाँध बनाये।
तट सूखे करके हम अपनी,
ताकत पर इतराये।
क्रोधित गंगा पूछें शिव से, क्यों मानूँ प्रतिबंध।
गंगा रूठ गयीं हैं हमसे, गंगा रूठ गयीं।।