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गंगा - 2 / एस. मनोज

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गंगा कि अविरल धारा है
तन के रक्त समान
अगर कहीं गंगा रूकती है
रुकेंगे सब के प्राण
गंगा सबकी मुक्ति दायिनी
प्राण दायिनी गंगा
गंगा कि निर्मलता से ही
होता तन मन चंगा
आदि काल से चली आ रही
सबके धोते पाप
मरणासन्न हो चली है अब यह
अब देगी यह शाप
लोग लाभ में पड़ कर वे
गंगा को बेच रहे हैं
गिद्ध दृष्टि लगाकर जो
पुरखों को नोच रहे हैं
गंगा गंगा कहकर वे
गंगा बोतल में भरवाते
मां की अस्मत बेच रहे जो
तनिक नहीं शरमाते।