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गंगा / 10 / संजय तिवारी
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गंगा
आखिर कौन हो?
नदी तो नही हो
पानी भी नही हो
शिव की लटों में लिपटी
महादेव की सहेली
याकि एक अखण्ड पहेली
कब से
कब तक
किस से
किस तक
क्यो हो?
वैसी ही
ज्यों की त्यों हो
गतिहो
प्रणव हो
गान हो
अनहद
अनंत
अप्रतिम
अविरल
विरंचि की कैसी माया हो
युगों की एक मात्र काया हो
हा काया
माया की
मन की
मनन की
चितन की
कल्पना की
यथार्थ की
जगत की
परमार्थ की
गेय हो, सभी गाते है
अज्ञेय हो, समझ नही पाते है।
अनोंखी बसंत हो
सभी चिंतन का अंत हो
सिंघनाद हो, उद्घोष भी
एकादशी, प्रदोष भी
कभी छाया हो,
कभी धूप
तेरे कितने
कैसे
अनगिन रूप
जीवन का आरम्भ
मृत्यु का उत्सव
ऐसी तेरी गोंद
अनंत आँचल
बस अनंत।