भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा / 13 / संजय तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राम
तुम तो जगत के प्यारे हो
सब के दुलारे हो
मर्यादा पुरुषोत्तम हो
शासक सर्वोत्तम हो
कभी पीछे भी देखा है?
तुम्हारे कुल की गहरी रेखा है
सत्य के लिए जान
वचन के लिए सब कुछ कुर्बान
मैंने देखा है तारा को
हरिश्चंद बेचारा को
रोहताश्व के शव को
जागतिक भव को।

सच कहती हूँ
बहुत रोइ थी
युगो तक न सोइ थी
तारा की फटी आँचल से
लटकते सूट
शव बना पूत
शमशान का कर
पिता आँसुओ से तर
कोई चारा न था
बचने का कोई किनारा न था।

कोख की दहाड़
दरिद्रता का पहाड़
माता की ममता
सत्यवादी पिता की
 आर्थिक अक्षमता
तब भी
अब भी
पाट वही है
घाट वही है
रात वही है
जात वही है

वही शवों का ढेर
कोई सुदामा
कोई कुबेर
दिन हो या रात
एक जैसी बात
मैं वैसे ही बह रही हूँ
मणियों में ही रह रही हूँ
अब कोई आकाशवाणी नहीं होती
कोई तारामती उस तरह नहीं रोती।

तुमसे पहले
तुम्हारे बाद
बहुत कुछ उजड़ा
बहुत हुआ आबाद
तुम्हारा अश्वमेध संकल्प
सिया सुतो का प्रकल्प
नहीं शेष था विकल्प
तुम जैसे को भी सुननी पड़ी
पुत्रो की ललकार
कैसा है जगत का व्यापार?
पिता ने तुम्हें बनवास दिया था
तुमने लोक के लिए
पत्नी और पुत्रों के साथ
वही किया था।