गंगा / 3 / संजय तिवारी
ठोस हूँ
गैस हूँ
द्रव हूँ
शिखरों से उतरकर
धरती की उपद्रव हूँ
सूखा और बाढ़ हूँ
कुछ कुछ आषाढ़ हूँ
सृष्टि के साथ हूँ
सृष्टि के बाद हूँ
साध्य भी हूँ और असाध्य भी
मुक्त भी और बाध्य भी
अद्भुत,अद्वितीय, अविनाशी
मेरे भीतर असंख्य काशी
अनंत संभावनाओं की लहर हूँ
काल के संविधान की प्रहर हूँ
जगत का स्वाभिमान हूँ
जीवन मे अभिमान हूँ
सनातन का संविधान हूँ
एक मात्र संधान हूँ
गायत्री हूँ
गीता हूँ
सावित्री और सीता हूँ
जागतिक प्रपंचों की इति हूँ
प्रणय हूँ, पावन प्रीति हूँ
केवल नदी नही हूँ
सृष्टि की असंख्य सदी हूँ
जिनकी बेटी हूँ,
उन्ही के आदेश पर
सृजन से बंधी हूँ
सभ्यता जब जब सीमा लांघती है
मेरी धाराएं ही उसे बांधती हैं
मूल्यों का मरना
संस्कारो का झरना
संस्कृतियों का उतार
संवेदनाओं का उभार
संबंधों का संघर्ष
प्रकृति का आकर्ष
सूर्य का संधान
पृथिवी का परिधान
पवन का प्रवाह
प्रश्न अथाह
इन अथाह पश्नो का एकमात्र हल हूँ
इसीलिए बहुत विकल हूँ।
शिव की लटों से उतरने का अभिप्राय
सागर में समाहित होने भर का उपाय
जीवन को मुक्ति की अभिलाषा
प्रयाग में संगम की एकमात्र आशा
क्या करता है मानव
तुमको क्यो नही है भान
तुझे होगा
मुझे नही खुद पर अभिमान
लाशो पर भी फूल उगाती हूँ
मृत्यु को भी जीवन के अनुकूल बनाती हूँ
माँ हूँ, मैं कभी मर नही सकती
नदी हूँ, कभी खुद तर नही सकती।