भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा / 4 / संजय तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हें पता है
मैं सोती नही हूँ
इसीलिए कभी रोती नही हूँ
आँसू
जीवन नही होते
जो जीवन मे है वे कभी नही रोते
आँसू
संवेदनाओं की शव यात्रा हैं
नयनप्रवाह की सुनिश्चित मात्रा हैं
इन पर न जाना
इनसे कुछ नही पाना
जीने के लिए मेरा प्रवाह देखो
किनारों के मिलने की चाह देखो
पूरी राह पास में
मिलन की आस में
चलते रहते हैं
हर परिस्थिति में ढलते रहते है
कभी इन्हें मिलते भी देखा है?
इनके न मिलने में ही मेरी जीवन रेखा है
कभी यदि ये संयम से हिल गए
संयोगात मिल गए
क्या बचेगा?
मेरा अस्तित्व फिर कौन रचेगा?
मैं जीवन देने आयी
केवल मृत्यु ढो रही हूँ
गंगा होकर भी
तुम्हें लगता है रो रही हूँ
ऐसा नही है
कुछ भी काल जैसा नही है
तुम नही थे, मैं तब भी रही हूँ
ऐसे ही बही हूँ
शिवकेशपाश में गही हूँ
जहाँ थी वहीं हूँ
गौरी से कोई डाह नही है
जटाओ से इतर कोई चाह नही है
शिव का संवाद हूँ
धाराओं में लिए
अनहद नाद हूँ
ब्रह्मा की बेटी
भीष्म की माता
मानव से यही नाता
न मैं पुण्य की साक्षी हूँ न पाप की
न आशीर्वाद की न शाप की
हे मनुष्य, मुझे कितना जान सकोगे
जितना जानोंगे,उतना ही मान सकोगे
भक्ति और मुक्ति का विधान हूँ मैं
गंगा हूँ पुत्र
जीवन का संविधान हूँ मैं