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गंगा / 8 / संजय तिवारी

देवी हो
 याकि निर्मल नीर
कैसे हर लेती हो पीर
माँ से भी इतर
सभी के भीतर
कब से समाई हो
माँ
तुम नदी भर नही हो
माई हो।


अद्भुत तुममे सहने की शक्ति
तुम्ही से जीवन
तुम्ही से मुक्ति
 तुम क्या हो
क्यो हो
कब हो
कैसी हो
बिल्कुल आत्मा जैसी हो
जगत की
सृष्टि की
सृजन की
सुख दुख में समान हो
कैसे इस कलियुग में भी
 विद्यमान हो


युगों की साक्षी
फिर भी नही आकांक्षी
किसी गति या मुक्ति की
नही किसी युक्ति की
कैसे सह लेती हो
युगांत के बाद भी
कैसे राह लेती हो

तुमने तो सब देखा है
 जो प्राणों की रेखा है
मनु को भी जन्मते और मरते
सभ्यताओं को चढ़ाते उतरते
मानव जाति का अभिमान
पराभव, यश, गान

ममता हो
समता हो
कितनी तरल हो
हमने बहुत बांधा
फिर भी अविरल हो
अविराम चलती हो
नही ढलती हो
अनंत यात्रा की अद्भुत पथिक हो
माँ
हम कुछ भी न जान सके
जो जान सके
उससे बहुत अधिक हो।

चेतना की भी चेतना हो
आत्मा की भी आत्मा
जीवन के साथ भी
जीवन के बाद भी
जीवन का भी जीवन
शक्ति की भी शक्ति
मुक्ति की भी मुक्ति
माँ गंगे
तुम धन्य हो
अनन्य हो ।