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गंगिया री, अति दूर समुन्दर / प्रतिभा सक्सेना

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नैहर की सुधि आई, हो गंगिया नैहर की सुधि आई!
बिछुड़ गईं सब बारी भोरी!
संग सहिलियां आपुन जोरी
ऊँचे परवत जनमी काहे नीचे बहि आई!

उछल-बिछल, बल खाइत, विरमत खेलत आँख-मिचौली
वन घाटिन में दुकि इठलाइत, खिलि-खिल संग सहेली
नीर भरी छल-छल छलकाइत,
पल-पल मुड़ि-मुड़ि देखति .
बियाकुल लहर हिलोरत पल पल कइसन समुझाई!

परवत पितु की गोद, हिमानी आँचल केरी छाया,
इहाँ तपत तल, बहत निमन मन सहत,छीन भई काया .
सिकता सेज, अगम पथ आगिल,
नगर-गाम वन अनगिन,
गंगिया री अति दूर समुन्दर कइसन सहि पाई!