गंगोत्तरी जाते हुए मार्ग में / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
हिमदुकूलमण्डित अम्बरमणि-से उद्भासित-से,
क्षीरप्रणाल बहाने वाले गिरि ऐरावत-से;
लुटा रहे निर्मल मुक्तास्रज फेनिल झरनों से।
फेनहासिनी देवपùिनी तुमुल नाद करती,
आत्मदान की आकुलता में लहराती बढ़ती;
बजा रहा नगराज दमामा घोर मन्द्र ध्वनि में।
खिले लौंग-कुसुमों के शेखर पर तारे उतरे,
तीक्ष्ण पर्णवृन्तों से संवृत चीड़ उमंग-भरे;
भुजा उठाए खड़े प्रलम्ब चिनार तुंग ध्वज-से।
झोंके खाते सन-सन बहते प्रबल प्रभंजन-से,
भरते नभ के अन्तर्मन को भैरव गर्जन-से;
लटके कज्जल घन हिमगिरि पर तिमिर-आवरण-से।
न्य´्चित शिला-खण्ड क्षिति-लुण्ठित छिन्न-भिन्न बिखरे,
अंकित जिन पर युग-युग के स्वर-व्यंजन अर्थ-भरे;
चक्रवात, हिमपात, ताप से विक्षत कटे-फटे।
(वर्त्तमान, भावी, अतीत के उपाख्यान कहते!)
गहरी ढालदार पगडण्डी कहीं बहुत नीची,
गण्ड शैलसंकुला, वर्तुला कहीं बहुत ऊँची;
वक्र उक्ति-सी, ऊर्ध्व वृत्ति-सी चढ़ी शि´्जिनी-सी।
मन निरोध के बन्धन से उन्मुक्त गगन-सा है,
हरिचन्दन-सा शीतल, मन्थर गन्ध-पवन-सा है;
आन्दोलित पृथिवी का अन्तर सावन-घन-सा है।
(‘विशाल भारत’, अक्तूबर, 1963)