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गंजी टेकरी / दिलीप चित्रे
Kavita Kosh से
आपने ज़मीन बेचने के लिए प्लाट कटवाकर
मेरे बचपन से शुरू होनेवाला बड़ कटवा इया
कुल्हाड़ीवाले मज़दूर लगाकर गूलर कटवा दिया
नीम, अनार, सहजन, पारिजात कटवा दिया
फिर मुझे भेज दिया शहर में पढ़ने के लिए
आजू-बाजू के घर पहले ही गिरवा दिए थे
पाँच-पच्चीस बसे हुए घरों को हटाकर
फिर संस्कृति-ख़ातिर बलिदान करने के हठ से
हम सबों के जन्म के इर्दगिर्द की झाड़ी को तोड़कर
स्मृति में रख दी एक गंजी टेकरी
मैं पलटकर भटकता रहा तो क्या हुआ
खोजता रहा मैं ही जड़े और शाखाएँ दुनिया-भर
मुझे चाहिए था अपने इर्दगिर्द घना जंगल
और रिश्ते, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षियों और इन्सानों से
एक गंजी टेकरी-जैसे समाज में मैं कवि हो गया।
अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले