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गंधगीत / ओमप्रकाश सारस्वत
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तन गुलाल होने दो
मन मलाल धोने दो
बोने दो रोम-रोम
पृष्ठों पर गंध-गीत
होने दो देहों को
रागों का मन्त्रमीत
मन के देवालय में
सच्चे न्यायालय में
आँखों को आँखों की
प्रेम-माल होने दो
वैसे तो वसुधा यह
प्रेम-पाठ पढ़ती है
किंतु बस लज्जावश
चर्चा से डरती है
उसकी यह लाज-शर्म
लिपटी जो कलियों में
उसको तुम खिलने तक
खुद किताब होने दो
फागुन ने देखो तो
कैसा यह काम किया?
युवकों की मिलनी में
बूढ़ों को डाँट दिया
गोरी को दे गुलाल
छोरी के बाहें डाल
कहता है पानी को
और आग होने दो
मलंगड़ी हवाएँ ये
छुट्टी-सी डोल रहीं
बदाबदी फूलों के
मुख में सुख घोल रहीं
बोल रहीं प्रिय पाने को
उसके संग जाने को
तन-मन अपनाने को
अब बवाल होने दो