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गंधार / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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3.

युग युग संतन की वलिहारी। टेक।
जो प्रभु अलभ अमूरति अविगति, तासु भजन निरूवारी॥
मन वच क्रम-जग जीवन को व्रत, जीवन को उपकारी। संतन साँच कहो सबहीते, सुत पितु भूप भिखा॥
ढोलिया ढोल नगर जोमारे, गृह गृह कहत पुकारी। गोधन यूथ पार करबेको, पीटत पीठ पहारी॥
यहि जग हरि-भगता पतिवरता, अवसर बसै व्यभिचारी। धरनी धिग जीवन है तिनको, जिन हरिनाम विसा।

4.

जो जन भगत वछलहिँ उपासी। टेक।
ताको भवन भवो उँजियारा, प्रगटी जोति दिवासी॥
लोक-लाज कुल काज विसारी, सार शबद को गासी। तिनको सुयश दशाँ दिशि बाढ़ै, कवन सकै करिह॥
हरि-व्रत सकल भक्तजन गहि गहि, यमते रहे उदासी। देह धरी परमारथ-कारन, अंत अभयपुर वासी॥
कामक्रोध तृणा मद मिथ्या, सहज भये वनवासी। संतन दीन-दयाल दयानिधि, धरनी जन सुख रासी॥2॥