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गए बरस की यही बात यादगार रही / शबनम शकील
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गए बरस की यही बात यादगार रही
फज़ा ग़मों के लिए ख़ूब साज़-गार रही
अगरचे फैसला हर बार अपने हक में हुआ
सज़ा-ए-जुर्म बहर-हाल बर-क़रार रही
बदलती देखीं वफ़ा-दारियाँ भी वक़्त के साथ
वफ़ा जहाँ के लिए एक कार ओ बार रही
अब अपनी ज़ात से भी एतमाद उन का उठा
वो जिन की बात कभी हर्फ़-ए-ऐतबार रही
ख़बर थी गो उसे अब मोजज़े नहीं होते
हयात फिर भी मगर महव-ए-इंतिज़ार रही
न कोई हर्फ-ए-मलामत न कोई कलमा-ए-ख़ैर
ये ज़ीस्त अब न किसी की भी जे़र-ए-बार रही
ये और बात कि दिल ग़म में ख़ुद कफील हुआ
मगर वो आँख मिर ग़म में अष्क-बार रही