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गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर / सूरदास

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गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर ।
देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै चले तब भीतर ॥
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।
सूनैं सदन मथनियाँ कैं ढिग, बैठि रहे अरगाइ ॥
माखन भरी कमोरी देखत, लै-लै लागे खान ।
चितै रहे मनि-खंभ-छाहँ तन, तासौं करत सयान ॥
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।
आपु खात, प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत,का रंग ?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मीठौ कत डारत ।
तुमहि देत मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत ?
सुनि-सुनि बात स्यामके मुखकी,उमँगि हँसी ब्रजनारी ।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि-मुख तब भजि चले मुरारी ॥


श्यामसुन्दर उस गोपिका के घर गये । (पहुँचते ही) देखा कि द्वार पर कोई नहीं है, तब इधर-उधर देख कर भीतर चल दिये । जब गोपी ने श्याम को आते देखा तो स्वयं छिप गयी । सूने घर में मटके के पास मोहन चुप साध कर बैठ गये । मक्खन से भरा मटका देखते ही निकाल-निकाल कर खाने लगे । पास के मणिमय खंभे में अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखकर (उसे बालक समझकर उसके साथ चतुराई से बातें करने लगे `मैं आज पहली बार चोरी करने आया हूँ, तुम्हारा-मेरा साथ तो अच्छा हुआ ।' स्वयं खाते हैं और प्रतिबिम्ब को खिलाते हैं । जब (मक्खन) गिरता है तो --`यह तुम्हारा क्या ढंग है? यदि चाहो तो तुम्हें पूरा मटका दे दूँ । मक्खन अत्यन्त मीठा है, इसे गिरा क्यों रहे हो? तुम्हें भाग देने में तो मेरे मन में बड़ा सुख हुआ है । तुम अपने चित्त में क्या विचार करते हो ? श्यामसुन्दर के मुख की ये बातें सुन-सुन कर गोपी जोर से हँस पड़ी । सूरदास जी कहते हैं कि गोपिका का मुख देखते ही मेरे स्वामी श्रीमुरारि भाग चले ।