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गगन चढ़े ये क्या फिर आए? / रामगोपाल 'रुद्र'
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गगन चढ़े ये क्या फिर आए?
मोर, नाच मत फूला-फूला!
चातक-सा क्या तू भी भूला?
ये तो मधु के गंधविकल स्वर,
बौरों पर जो थे बौराए!
परिचित प्रिय के वेश नहीं ये,
प्रियतम के सन्देश नहीं ये;
दृग-छल को ही सजल बनाकर
मरु-मृग ने हैं प्राण जुड़ाए!
मावसपीड़ित सिन्धु-चकोरे
पावस-पट में आग बटोरे
हार पिरोते हूक रहे हैं,
प्रिय के पथ पर नयन बिछाए!