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गठरी में बंधी साड़ियों के अनेक रंग / निशा भोसले

वह औरत
कपड़ों का गठ्ठा लिए
रिक्शे में
घूमती है
शहर के
गली मोहल्ले में
देती है दस्तक
घरों के दरवाज़े पर
मना करने के बावजूद
दिखाती है गठरी खोलकर
साड़ियाँ

कश्मीरी सिल्क, कोसा सिल्क,
बंगाल और साउथ इंडिया की

बैठ जाती है
घर की चौखट पर
बताती रहती है
साड़ियों के बारे में

कभी थक जाती है
धूप में चलकर
कभी उसके कपड़े
गीले हो जाते है पसीने से
कभी उसका गला
सूख जाता है प्यास से

वह फिर भी रुकती नहीं
निकल जाता है/रिक्शावाला
कहीं उससे आगे
वह फिर से तेज़ चलती है
देती है आवाज़
गली मोहल्ले में

शाम को लौटती है घर
थकी हारी
गठरी को लादकर

रात में
जब वह सोती है
झोपड़ी में
मिट्टी के फर्श पर निढाल

उसकी फटी साड़ी में
सिले होते हैं
अनेक साड़ियों के टुकड़े
जिसमें होते हैं
गठरी में बंधी साड़ियों के
अनेक रंग।