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गड़बड़झाला / देवेंद्रकुमार
Kavita Kosh से
आसमान को हरा बना दें
धरती नीली, पेड़ बैंगनी
गाड़ी नीचे, ऊपर लाला
फिर क्या होगा-
गड़बड़-झाला!
कोयल के सुर मेढक बोले
उल्लू दिन में आँखें खोले
सागर मीठा, चंदा काला,
फिर क्या होगा-
गड़बड़-झाला!
दादा माँगे दाँत हमारे
रसगुल्ले हों खूब करारे
चाबी अंदर, बाहर ताला,
फिर क्या होगा-
गड़बड़-झाला!
चिड़िया तैरे, मछली चलती
आग वहाँ पानी में जलती
बरफी में है गरम मसाला,
फिर क्या होगा-
गड़बड़-झाला!
दूध गिरे बादल से भाई
तालाबों में पड़ी मलाई
मक्खी बुनती मकड़ी जाला,
फिर क्या होगा-
गड़बड़-झाला!