गड्ढे में फंसा हाथी / नीरज नीर
पुरखों की जमीन और घर
बलात हर लिए जाने के बाद
वह भयभीत है
और विमूढ़ भी
गड्ढे में फँसे हाथी की तरह।
वह निकलना चाहता है बाहर
वह नहीं जानता है भविष्य
छूकर देखता है अपनी देह
आश्वस्त होना चाहता है
अपने शरीर पर अपने स्वत्वाधिकार के बारे में
और उसकी आत्मा?
वह तो उस सखुआ के पेड़ के साथ ही मर गयी
जिसके नीचे वह पूजता था सिंग बोंगा को
आत्मा कि अमरता के प्रश्न पर वह उत्तरहीन है
वह विस्मित है अपनी समझ पर ।
वह एक किसान है
और किसान ही बने रहना चाहता है
अपने खेतों में उगाना चाहता है
धान, मकई और आलू
पर व्यवस्था उसे बनाना चाहती है
मजदूर
उसे बताया गया है कि कोई और ही है
सभी ज़मीनों का मालिक
पर जो जमीन उसके बाप दादाओं की है
वह किसी और की कैसे है?
उसका यह प्रश्न भी
समाने लगता है
संशय के गहरे दलदल में
आत्मा के अस्तित्व के प्रश्न की तरह ।
उसे दे दी जाती है एक अदद नौकरी
अब बुधुआ उरांव अपने ही खेत
से निकालता है कोयला
उसे पता ही नहीं था
उसकी जमीन भीतर-भीतर थी इतनी काली
साहबों के मन की तरह ।
और एक दिन वह समा जाएगा
कोयले के उसी खदान में
वैज्ञानिक कहते हैं
उसकी हड्डियाँ और उसका सखुआ
कालांतर में बदल जायेंगे कोयले में