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गति / सविता सिंह
Kavita Kosh से
हूँ ऐसी गति में
उद्धिग्न इतनी कि
तोड़ती हर उस डोर को जिससे हूँ बँधी
जगी कई रातों से
थकी
शताब्दियों से कई
जगी वैसे भी हूँ नींद में ही चलती फिर भी
रात की मुँडेर पर बैठी बड़ी चिड़िया को पकड़ने की चेष्टा करती
गिरने से बचने के यत्न में लगी
पग-पग पर समेटती रात के विस्तार को
गति में हूँ बढ़ती
उद्धग्नि इतनी कि समझती भी नहीं इसके ख़तरे
मैं तारों का एक घर
न जाने कितने तारे
मेरी आँखों में आ-आ कर धवस्त होते रहे हैं
उनकी तेज़ रोशनी
गहन ऊष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही हैं
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गयी हूँ
जिसमें मनुष्यों की भांति ये मरने आते हैं
आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतरना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही ऊष्मा चली जाती है कहीं