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गन्तव्य-पथ के बीच / स्वदेश भारती

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गन्तव्य पथ पर चलता रहा
आपद-तूफ़ान, वर्षा, झँझावात के बीच
अपने विश्वास
और आस्था को
मन-मस्तिष्क से भींच
चलता रहा
वह जो सपना था मन के भीतर
नए नए रूपों में पलता रहा

सभी के हमारे अन्तस में सम्बन्धों की राख में
एक द्युतिमान चिंगारी छिपी होती है
जो समय-असमय जलती है धू-धूकर
इस तरह हठात जलती है तो कुछ न कुछ
विध्वंस होता ही है
कभी आग सार्थक होती है
तो कभी निरर्थक होकर
जलाती है मन-मस्तिष्क निःस्वर

मैं भी उस आग में जलता रहा
और गन्तव्य-पथ पर चलता रहा
कभी-कभी ऐसा भी होता आया
कि अजाने सुख ने रोमाँच दिया
सुखा डाला सोच की हरियाली को दुःख ने
और उसे ही प्रारब्ध का छोटा अंश मान लिया

नए-नए क्षितिजों में चलने की चाह से
मन का आइस वर्ग पिघलता रहा
मैं अपने गन्तव्य-पथ पर चलता रहा ।

उत्तरायण (कोलकाता), 20 अप्रैल 2013