Last modified on 10 जुलाई 2016, at 06:26

गन्दी बस्ती / शहनाज़ इमरानी

ऊँची इमारतों के पीछे
पड़ा है सभ्यता का कचरा
बेतरतीब झोंपड़ियाँ
कपड़ों की जगह चीथड़े और
ज़ुबान के नाम पर
बेशुमार गालियाँ

पॉलीथिन, टूटे काँच, कागज़
लोहे के टुकड़े कचरों के ढेर से चुनते है सारा दिन
इस गन्दी बस्ती के लोग
कबाड़ियों को बेचते
और फिर लौटती है चीज़ें
लेकर नया रूप, रंग और स्वाद

मिमियाती ख़्वाहिशों के सामने
खड़ी रहती है हताशा
समाज के क़ायदे-कानून भी
यहाँ लागू होते नहीं
आर्थिक कोई भी कोण बनता नहीं
 
काग़ज़ी आँकड़ों में बदल जाती हैं तस्वीर
चाट जाएगा समय का अन्धेरा इस बस्ती को भी
कोई नहीं पूछेगा न कोई बताएगा।