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गमई झोंपड़े / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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कच्चे फाड़े बत्ते गँड़रे,
घुन के द्वारा खाए खँखड़े,
जिनमें कोरो और बँड़ेरे,
चाभ हरउती के।

पार पुराने, खम्भे लँगड़े,
शावे की रस्सी से जकड़े,
गए सरौते ठठे न थकड़े,
माँगर भी मारे।

उल्टे लटके चींटे, मच्छर,
मकड़े के जाले के अन्दर,
जिनमें घिरनी, झींगुर के घर,
दीमक की बाँबी।

आँधी आती जब हर-हर कर,
गिरते तब गँदले गुदड़े खढ़,
छप्पर से, टट्टी से अक्सर,
धूरे के चूरे।

मेघ बरसते जब रनघन कर,
वज्रमन्त्र से भेद दिगन्तर,
चूते चारों कोने गर गर,
गीली आँखों से।

एक ओर जिनके भीतर है,
खड़ी हुई चक्की चल कर है,
पाट हुआ जिसका जर्जर है,
घिसकर वर्षांे से।

निकट उसी के श्रम से अर्जित,
भरे टोकरों में हैं संचित,
काँवन, चने उलाए मिश्रित,
सम्पद निर्धन के।

अधटूटे कोने में छोटे,
घसे तवे लोहे के मोटे,
पतली-सी पेंदी के लोटे,
लुढ़क पड़े हुए।

इधर-उधर मैले कपड़े हैं,
लगे हुए जिनमें थिगरे हैं,
फटे अँगौछे के टुकड़े हैं,
टँगे अरगनी में।

गहरे अँधियारे जिनमें हैं
रहते कौन यहाँ इनमें हैं
जकड़े ऋण के जबड़े में हैं,
मुरझाए हारे।

हृदय राष्ट्र के, प्राण वतन के,
पर्ण-नीड़ ये शोषित जन के,
सुखद शरण पीड़ित अशरण के,
धरती के वन्दन।

रहनेवाले इनमें कैसे,
मरघटिए के मुर्दे जैसे,
कम्पित स्वर्ग-नरक के भय से,
आफ़त के मारे।

अर्थ-दस्युओं के त्रासन में,
धर्म-दस्युओं के भाषण में,
शक्ति-दस्युओं के शासन में,
हतभागे बाँधे।

बदल-बदल करवटें जागते,
सूखी लेंड़ी फूँक तापते,
पूस-माघ की रात काटते,
जो जैसे-तैसे।

तार-तार लीरे चिथड़े से
बित्ते-भर कच्छे मैले-से,
धूल-धूसरित गन्दूमे-से,
सहज वसन जिनके।

चार महीने और काटने,
रहे नहीं मुट्ठी-भर दाने,
डरावनी बरसात सामने,
चमक रही बिजली।

युग-युग से जिनके सिर पर हैं,
गर्वी चंगेजी खंजर हैं,
लाख-लाख बर्बर नादिर हैं,
तनकर खड़े हुए।

किन्तु, आज है क्षितिज साँवला,
खुला-धुला-सा लगता उजला,
डहक रहा अंगार सुनहला,
इन मरघटियों में।

हे निश्चित, निष्ठुर नूतन हे,
हे सुपर्ण, शतसहसनयन हे,
लवनिमेष, ऋतु, मास, अयन हे,
कालदण्ड धारे।

घिसे पुराने चीले त्यागे,
जाते युग के आगे-आगे,
रथ के चक्र तुम्हारे भागे,
आँधी की गति से।

तेरी ही गति से जाते हैं,
अम्बर से तारे लाते हैं,
महासिन्धु में लहराते हैं,
मानव नारायण।

हे नवीन, हे निर्मम दुर्धर,
क्रूर काल है वक्र दन्तधर,
चढ़ तुम्हारा बाण धनुष पर,
उल्का-सा छूटा।

पूरब-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर,
झोंपड़ियों के भीतर-बाहर।
उमड़े, कोटि-कोटि नारी-नर,
रण-कंकण बाँधे।

खंग-दन्त को हींस-हींस कर,
गरज रही रणध्वनि दुर्दमतर।
करने को नव सृजन युगान्तर,
भू में अम्बर में।

शोषण के प्राचीर पुरातन,
इन्द्रों माहेन्द्रों के आसन।
डोल उठे ज्यों केले के वन,
मत्त प्रभंजन से।

दल-के-दल कंकाल भयंकर,
पहन वज्र के कवच वक्ष पर।
चले तड़ित के नेज़े लेकर,
आगबबूले-से।

कोटि कण्ठ हैं और एक स्वर,
उठे सगर्व कोटि डग मिल कर।
एक लक्ष्य पर कोटि-कोटि शर,
फन काढ़े छूटे।

लहरा है वसन्त पतझड़ में,
नई ज्योति जागी उर-उर में।
हाट-हाट में, डगर-डगर में,
फैला उजियाला।

झुके खड़े झोंपड़े सुहावन,
धरती के मटमैलै दामन।
लहराएँगे, जैसे सावन,
घन में लहराता।

लहरों से भीगेंगे जन-मन,
गहन तिमिर में होंगे रोशन।
नवयुग के ज्योतिर्मय लोचन,
खिले प्रसूनों से।

(रचना-काल: जनवरी, 1949। ‘नया समाज’, जुलाई, 1949 में प्रकाशित।)