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गमकता बैसाख / प्रज्ञा रावत

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हँस रहा है चकखती बैसाख का ये दिन
ये मौसम का गमकना भी कैसा! ठीक
जैसे नन्हा शिशु माँ की गोद से
बिखेरता हँसी चारों दिशाओं में
झाँकता है माँ के आँचल से
और फिर छिप जाता है वहीं

तपती गर्मी की इस मदमस्त हवा में
अपने पूरे हरेपन में इठला रहा है
आम का भरा हुआ पेड़
गदरायी कैरियाँ, इतराती
करती हँसी-ठिठोली झूम रही हैं
जैसे करती हों कोई समूह-नृत्य
मना रहा है जश्न अपने मौसम का

ऐसे में धरती-पुत्री मैं
सायं-सायं करते दोपहर के सन्नाटे में
हूँ शामिल इस उत्सव में
कोई नहीं आसपास
मैं भी रहना नहीं चाहती भीतर
गर्मी में मशीन की हवा रास नहीं आती
घबराने लगती हूँ दूर जाने लगती हूँ ख़ुद से
लगता है बेईमानी कर रही हूँ मौसम के साथ
 
इस समय तो हुलक रहा है
मेरा कण्ठ
मैं जी भरकर गाना चाहती हूँ
एक गीत ओ सूरज तुम्हारे प्रेम में।